श्री कृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव पर संक्षिप्त कृष्ण लीला
देवताओं द्वारा माता देवकी के गर्भ की स्तुति
जब-जब धरती पर धर्म की हानि होती है और अधर्म की सत्ता प्रतिष्ठित होने लगती है; तब-तब साधुजनों की रक्षा, दुष्टों के समूल विनाश तथा धर्म की पुनर्स्थापना के लिये भगवान् विविध रूपों में अवतरित हुआ करते हैं।
द्वापर-युग की बात है। मथुरा में उग्रसेन नाम के राजा हुए। वे स्वयं तो अत्यन्त न्यायप्रिय और प्रजा-वत्सल थे, किंतु उन्हीं का पुत्र कंस बड़ा ही क्रूर, निर्दयी और अत्याचारी निकला। उसके भय से धरती त्राहि-त्राहि कर उठी। कंस के ही समान अन्य अनेक आतताइयों का बोझ धरती के लिये और भी दुःसह हो गया था। गौका रूप धारण कर वह देवताओं के साथ भगवान् की शरण में पहुँची। दीन-वत्सल भगवान् ने धरती को दुष्टों के बोझ के मुक्त करने के लिये अवतार लेने का निर्णय लिया।
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कंस को अपनी चचेरी बहिन देवकी से स्नेह था। देवकी का विवाह वसुदेव से हुआ। कंस स्वंय देवकी-वसुदेव को रथ में बैठाकर पहुँचाने ले चला। रास्ते में ही वह था कि आकाशवाणी हुई-‘मूर्ख कंस! इस देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र तेरी मृत्यु का कारण बनेगा। यह सुनकर कंस देवकी को मारने के लिये उद्यत हो गया। वसुदेव ने समझाया-‘तुम्हारा शत्रु देवकी नहीं, उससे उत्पन्न पुत्र ही तो होगें। मैं इसके सभी पुत्र तुम्हें सौंप दिया करूँगा।’ कंस मान गया। किंतु वसुदवे-देवकी को उसने वापस लाकर कारागार में डाल दिया।
देवकी के क्रमशः छः पुत्रों को आततायी कंस ने मार डाला। सातवें गर्भ के रूप में अनन्त भगवान् (शेष जी)-को आना था। परमात्मप्रभु की इच्छा से योगमाया ने देवकी के उस गर्भ का संकर्षण कर उसे वसुदेव जी की दूसरी पत्नी रोहिणी के उदर में स्थापित कर दिया, जो कंस के ही भय से गोकुल में नन्द जी के यहाँ रहती थीं। अब आठवें गर्भ के रूप में देवकी ने साक्षात् परमपिता को धारण किया। देवता लोग अपने-अपने लोकों से आकर गर्भवास कर रहे परमात्मप्रभु की स्तुति करने लगे।
भगवान् का प्राकट्य
माता देवकी के इस आठवें गर्भ के प्रसव का समय जैसे-जैसे समीप आ रहा था, वैसे-वैसे उनकी शोभा बढ़ती जा रही थी। उनका तेज देख कंस को भी विश्वास हो गया था कि यह गर्भ निश्चय ही उसका काल है। उसने कारागार पर पहरा और कड़ा कर दिया।
भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि थी। बुधवार की रात आधी बीत चुकी थी। पूर्व दिशा में चन्द्रमा का उदय होने वाला था। सहसा कारागार की वह कोठरी, जिसमें वसुदवे-देवकी कैद थे, प्रकाश से भर उठी। परम कृपालु भगवान् अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गये। भाव-विभोर होकर वसुदेव जी और माता देवकी प्रभु की स्तुति करने लगे। कंस के भय से त्रस्त माता-पिता को भगवान् ने आश्वस्त किया। माता के कहने पर वे अपना दिव्य चतुर्भुज रूप त्यागकर शिशु रूप में परिवर्तित हो गये। वसुदेव जी से उन्होंने पहले ही कह दिया था-‘आप मुझे गोकुल में नन्द जी के यहाँ पहुँचा दें और उनकी पत्नी यशोदा जी की नवजात पुत्री को यहाँ ले आयें।
भगवान् की योगमाया के प्रभाव से वसुदेव की हथकड़ी-बेड़ी खुल चुकी थी। कारागार के रक्षक प्रहरी निद्रा के वशीभूत हो गये थे। वसुदेव जी ने एक सूप में भगवान् के उस शिशुरूप को रखा और उन्हें सिर पर उठाकर वे गोकुल की ओर चल पड़े। यमुना जी ने प्रभु-चरणों का स्पर्श कर उन्हें रास्ता दिया। शेषनाग जी अपने फणों का छाता फैलाये मुसलाधार वर्षा से शिशु की रक्षा करने लगे।
योगमाया के प्रभाव से माता यशोदा भी अपने तत्काल उत्पन्न पुत्री से अनभिज्ञ गहरी निद्रा में थीं। शिुश रूप प्रभु को उनके समीप सुलाकर और उनकी कन्या को लेकर वसुदेव जी वापस मथुरा लौट आये। उनके कारागार में पहुँचते ही योगमाया का प्रभाव लुप्त हो गया। पुनः हथकड़ी-बेड़ियों से वे आबद्ध हो गये। कन्या-शिशु-रुदन करने लगी। कारागार-रक्षक जग गये और उन्होंने कंस से देवकी के पुत्र उत्पन्न होने का समाचार सुना दिया।
शिशु-लीला
कारागार-रक्षकों से देवकी के आठवाँ पुत्र उत्पन्न होने का समाचार सुनकर हड़बड़ाया कंस दौड़कर वहाँ पहुँचा। माता देवकी ने बिलखकर कहा-‘भइया! यह तो लड़की है, आप-जैसे योद्धा का भला क्या बिगाड़ सकेगी? इसे तो मुझसे मत छीनो!!’ किंतु आततायी कंस भला क्यों मानता? उसने देवकी की गोद से उस नन्हीं कन्या को झपट लिया। वह उसे घुमाकर पटकना ही चाहता था कि कन्या उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी। वस्तुतः भगवान् की योगमाया ही थी वह। चतुर्भुज रूप से आकाश में प्रकट होकर उसने कहा-‘अरे दुष्ट! तुझे मारने वाला कहीं और उत्पन्न हो गया है। लज्जित कंस ने वसुदेव-देवकी से क्षमा माँग कर उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया, किंतु साथ ही उसने अपने सेवकों को आदेश दे दिया कि वे उसके राज्य में उत्पन्न सारे नवजात शिशुओं को ढूँढ़कर मार डालें।
इधर गोकुल में नन्द बाबा के यहाँ शिशुरूप भगवान् की लीला प्रारम्भ हो गयी थी। नन्द बाबा गोपों के मुखिया थे। अतः उनके यहाँ शिशु उत्पन्न होने का उत्सव सारा गोकुल मना रहा था। वह दिव्य शिशु था भी ऐसा। जो कोई उसे देखता उसी का हो जाता। उसके साँवले-सलोने अनुपम रूप की चर्चा दूर-दूर तक फैलने लगी थी। कंस और उसके सेवक भी यह समाचार सुन चुके थे।
फिर क्या था! कंस के दुष्ट सेवक गोकुल की ओर आने लगे-इस दुराशा में कि वे नन्द बाबा के उस अनुपम शिशु को मारकर कंस द्वारा पुरस्कृत होंगे। सबसे पहले विषयुक्त स्तनों वाली पूतना आयी और प्रभु को स्तन पान कराने लगी।
प्रभु ने स्तनपान करते-करते उसके प्राण पी लिये। तदनन्तर कौवे का रूप धारण कर कंस का एक अन्य दुष्ट सेवक आया। शिशु रूप श्रीकृष्ण पालने में लेटकर अकेले किलकारियाँ भर रहे थे।
काकासुर अपनी चोंच से उन पर प्रहार करना ही चाहता था कि प्रभु ने उसका गला पकड़ लिया और इस तरह उछाला कि वह सीधे कंस के आगे जा गिरा। इसी प्रकार शकटासुर और तृणावर्त आदि कंस के अनेक दुष्ट अनुचरों का शिशुरूप में ही प्रभु ने उद्धार कर दिया।
गोकुल का आनन्द
नन्दबाबा का आँगन दो-दो शिशुओं की किलकारियों से चहक उठा था। मैया यशोदा का साँवला-सलोना और माता रोहिणी का कर्पूर-गौर शिशु। एक दिन यदुवंशियों के कुल-पुराहित गर्गाचार्य जी आये। उन्होंने दोनों शिशुओं का नामकरण किया। रोहिणी-नन्दन ‘बलराम’ हुए और यशोदा के लाल ‘श्रीकृष्ण’। गर्गाचार्य जी ने बता दिया कि ये कोई साधारण बालक नहीं हैं। बलराम यदि शेषावतार हैं तो श्रीकृष्ण स्वयं साक्षात् परब्रह्म। धरती से दुष्टों का बोझ उतारने के लिये ही इन्होंने मनुष्य रूप में अवतार लिया है।
गोकुल का आनन्द बढ़ाते हुए दोनों शिशु बड़े होने लगे। उनकी नटखट शरारतें सबका मन मोह लेतीं। नन्दबाबा के आँगन में वे कभी घुटनों के बल चलते हैं तो कभी माताओं की गोद में बैठने के लिये मचल पड़ते हैं। कभी आपस में लड़ बैठते हैं, तो कभी परस्पर दुलार भी दिखाने लगते हैं। श्रीकृष्ण की चंचलता देखकर तो स्वयं चंचलता भी लज्जित हो जाती है। अपनी परछाई मणिमय आँगन में देखकर वे उसे पकड़ने के लिये आतुर होते हैं और असफल होने पर ठुनकने लगते हैं। आकाश में उगे हुए चन्द्रमा को खिलौना समझ मैया से उसे लाने की जिद करते हैं और जिद पूरी न होने पर रोने लगते हैं। मैया यशोदा को परात में पानी भरकर आँगन में रखना पड़ता है और उसमें चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को देखकर ही बालक श्रीकृष्ण को कुछ संतोष होता है।
गोकुल-निवासी गोप-गोपियों की भीड़ नन्दबाबा के भवन में अकारण भी जुटी रहती है, केवल श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण की एक झलक पाने के लिये। उन्हें अपने घर की सुध-बुध बिसर गयी है। वैसे भी जिस रूप की छटा बड़े-बडे़ देवताओं, योगियों-मुनियों तक को अभिभूत कर देती है, उससे साधारण गोप-गोपियाँ कैसे मन्त्र-मुग्ध न हों? आज तो महादेव शंकरक भी प्रभु के बालरूप की झलक प्राप्त करने गोकुल में नन्दबाबा के द्वार आ पहुँचे। गोकुल के आनन्द की सीमा कहाँ!
ऊखल-बन्धन
श्रीकृष्ण-बलराम अब चलना-फिरना सीख चुके थे। नन्द बाबा के आँगन से बाहर निकलकर अब वे गोकुल की गलियों में घूमने लगे थे। ग्वाल-बालों के साथ खेलना-कूदना और ऊधम मचाना उनकी दिनचर्या बन गयी थी। भगवान् श्रीकृष्ण की शैतानियाँ गोकुलवासियों के मनोरंजन का साधन बनी हुई थीं।प्रभु माखन-प्रेमी थे। घर में माखन कमी थी भी नहीं; किंतु प्रभु को तो अपनी लीलाओं से भक्तजनों को सुख पहुँचाना ही चिर इष्ट रहा है। अतः वे माखन-चोर बन बैठे। साथी ग्वाल-बालों को लेेकर वे किसी भी गोप के घर जा धमकते। खुद माखन खाते, साथियों को खिलाते और बचे हुए माखन को इधर-उधर बिखेर भी देते।
गोपियाँ मन-ही-मन यही चाहती थीं कि नटखट श्याम किसी भी बहाने उनके यहाँ आया करें; किंतु दिखावे के लिये वे उनको डाँटती-धमकातीं तथा उलाहना लेकर मैया यशोदा के पास पहुँच जातीं। यह बात अलग थी कि जब कभी मैया यशोदा श्रीकृष्ण को दण्ड देने के लिये उद्यत होतीं तो तत्काल वे उनका निहोरा करने लगतीं। वस्तुतः मन से तो वे श्यामसुन्दर की भक्त ही थीं।
एक दिन नटखट श्रीकृष्ण की शरारतों से तंग आकर माता यशोदा ने उन्हें ऊँखल में रस्सी लेकर बाँध दिया। प्रभु को तो इसी बहाने किसी का उद्धार करना था। ऊखल को आड़ा करके उन्होंने गिरा लिया और उसे घसीटते हुए उधर चले जिधर अर्जुन के दो वृक्ष आपस में सटे खड़े थे। प्रभु ने स्वयं उन वृक्षों के बीच से निकलकर जैसे ही ऊखल को खींचा, दोनों वृक्ष अरराकर धरती पर आ गिरे। वस्तुतः वे दोनों यक्षराज कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव थे जो देवर्षि नारद के शापवश वृक्ष बन गये थे। प्रभु की स्तुति करके दोनों अपने लोक चले गये। माता यशोदा तो यह दृश्य देखकर स्तब्ध रह गयीं। उन्होंने दौड़कर अपने लाल को गले लगा लिया।
कालिय-मर्दन
गोकुल में आये दिन होने वाले उत्पादों से भयभीत होकर गोपों सहित नन्दबाबा ने वृन्दावन जाकर बसने का निर्णय लिया। फिर एक दिन सारा ब्रजमण्डल यमुना पार करके वृन्दावन आकर गया। भगवान् श्रीकृष्ण धीरे-धीरे पाँच वर्ष के हो चले थे। बड़े भइया बलराम जी और अन्य ग्वाल-बालों के साथ अब वे भी गायों को चराने जाने लगे।
कंस के दुष्ट सेवकों ने यहाँ भी श्रीकृष्ण का पीछा किया। वत्सासुर बछड़े का रूप धारण कर एक दिन उन गायों के झुण्ड में आ मिला, जिन्हें प्रभु अपने बालसखाओं के साथ चरा रहे थे। उसकी कुत्सित चाल भला सर्वेश्वर से कैसे छिपती? दोनों पिछले पैरों को पकड़कर प्रभु ने उसे हवा में घुमाया और एक वृक्ष की जड़ पर पटक दिया। वत्सासुर के प्राण-पखेरू उड़ गये। इसी प्रकार वकासुर, व्योमासुर तथा अघासुर आदि का भी बालक श्रीकृष्ण ने देखते-देखते संहार कर दिया। गोप-बालकों की श्रद्धा अपने इन अद्भुत पराक्रमी मित्र के प्रति और बढ़ गयी थी।
लोकपितामह ब्रह्मा ने एक बार प्रभु की परीक्षा लेने के लिये सभी गाय-बछड़ों और गोप-बालकों को चुरा लिया। सर्वज्ञ श्रीकृष्ण ने स्वयं ही गायों, बछड़ों और गोप-बालकों का रूप धारण कर लिया। एक वर्ष पश्चात् ब्रह्मा जी अपनी भूल के लिये पश्चात्ताप करते हुए प्रभु के पास आये और ग्वाल-बालों तथा गायों-बछड़ों को लौटाकर प्रभु की स्तुति करते हुए अपने लोक चले गये।
यमुना नदी में कालिय नामक एक विषैला सर्प रहता था। उसके विष के प्रभाव से वह ह्नद का जल सब के लिये उपयोगी हो सके, इस उद्देश्य से भगवान् श्रीकृष्ण एक दिन उसमें कूद पड़े। कालिय के शताधिक फणों को उन्होंने कुचल दिया। उसकी पत्नियों की प्रार्थना से द्रवीभूत होकर प्रभु ने उसे यमुना छोड़कर चले जाने का आदेश दे दिया।
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ज्योतिषाचार्य पंडित दिलीप देव द्विवेदी जी महाराज
विन्ध्य ज्योतिष केन्द्र
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