गुरु पूर्णिमा पर्व विशेष : आदमी के जीवन में क्या है गुरु की महत्ता – पंडित दिलीप देव द्विवेदी
- गुरु सेवा से पाप नष्ट होते हैं पुण्य बढ़ते हैं
क्षीयन्ते सर्वपापानि वर्द्धन्ते पुण्यराशयः । सिध्यन्ति सर्वकार्याणि गुरुशुश्रूया प्रिये ॥१२.६७॥ कुलार्णव तं
इसीलिए गुरु की शरण लेनी चाहिए। लेकिन गुरु सभी सनातन धर्मियों के लिए वैदिक तत्त्वज्ञ ही होना चाहिए ।
उसकी परम्परा भगवान् शिव से लेकर वर्तमान तक विशुद्ध होनी चाहिए –
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शिवादिगुरुपर्यन्तं पारम्पर्यक्रमेण यः । अवाप्ततत्त्वसम्भारः स गुरुर्नापरः प्रिये ॥९५॥
सारे संसार को शंका ने खा रखा है। उस शंका को जो खाए वह गुरु होता है
- शङ्कया भक्षितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् । सा शङ्का भक्षिता येन स गुरुद्देवि दुर्लभः ॥११२॥
- जो तत्वज्ञानी, वेदविद्या सम्पन्न ,और परम्परागत हो उसी को गुरु बनाएं
- सर्वलक्षणसम्पन्नो वेदशास्त्रविधानवित् । सर्वोपायविधानज्ञस्तत्त्वज्ञानी गुरुः स हि ॥१३.११७॥ कुलार्णव तं
- तस्मात् सर्वप्रयत्नेन साक्षात्परशिवोदितम् । सम्प्रदायमविच्छिन्नं सदा कुर्याद् गुरुः प्रिये ॥८॥
जो अशास्त्रविहित मंत्र उपदेश करे अर्थात् ऐसी परम्परा डाले जिसका शास्त्र समर्थन नहीं करते तथा जो स्वयं सनातन सम्प्रदाय की गुरु शिष्य परम्परा से न हो उससे दीक्षा न लें अन्यथा दोनों नरक में जाते हैं —
अशास्त्रीयोपदेशञ्च यो गृह्णाति ददाति हि । भुञ्जाते तावुभौ घोरान्नरकानेकविंशतिम् ॥१४.१२॥ कुलार्णव तं
बिना दीक्षा के जप दान आदि सफल कम होते हैं। अतः सबसे सरल रास्ता है कि किसी यज्ञोपवीती गायत्री उपासक ब्राह्मण से अथवा सनातनी संप्रदाय के संन्यासियों से दीक्षा ग्रहण करें —
अदीक्षिता ये कुर्वन्ति जपपूजादिकाः क्रियाः । न फलन्ति प्रिये तेषां शिलायामुप्तबीजवत् ॥९६॥देवि दीक्षाविहीनस्य न सिद्धिर्न च सद्गतिः । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन गुरुणा दीक्षितो भवेत् ॥१४.९७॥ कुलार्णव तं
गुरु की सेवा का अर्थ है उसके काम आना — ज्योतिषाचार्य पंडित दिलीप देव द्विवेदी जी महाराज बता रहे है
आत्मार्थमानसद्भावैः शुश्रूषा स्याच्चतुर्विधा । शुश्रूषया धिया देवि शिष्यः सन्तोषयेद् गुरुम् ॥६४॥
शुश्रूषा (सेवा) चार प्रकार से की जाती है- १. आत्मा अर्थात् स्वयं के द्वारा, २. अर्थ अर्थात् धन-सम्पत्ति आदि के द्वारा, ३. मान अर्थात् सम्मानवर्धन द्वारा और ४. गुरु के प्रति सद्भाव द्वारा । शुश्रूषा की इस बुद्धि से गुरुसेवा में प्रवृत्त शिष्य गुरुदेव को सन्तुष्ट करे। गुरुदेव की प्रसत्रता ही श्रेयस्कर है ॥६४॥
गुरुं प्रकाशयेद्धीमान् मन्त्रं यत्नेन गोपयेत् । अप्रकाशप्रकाशाभ्यां नश्यतः सम्पदायुषी ॥८८॥
गुरु के सम्बन्ध में, उनकी महत्ता और योग्यता के सम्बन्ध में योग्य शिष्य सदा प्रचार किया करते है, जिससे उनके गुणों का प्रकाश चतुर्दिक् प्रसरित होता रहे; किन्तु गुरु द्वारा प्राप्त मन्त्र को अत्यन्त गोपनीय रखना चाहिये। यह सिद्धान्त है कि, जो अप्रकाश्य है, उसे प्रकाशित करने से और जो प्रकाश्य है, उसे अप्रकाशित करने से सद्रूप लक्ष्मी और आयुष्य दोनों का ह्रास हो जाता है ।॥८८॥
गुरुस्त्रिवारमाचारं कथयेच्च कुलेश्वरि । न गृह्णाति हि शिष्यश्चेत्तदा पापं गुरोर्न हि ॥ १०८॥
गुरु का यह कर्तव्य है कि, वह पथभ्रष्ट होते हुए शिष्य को कुपथ के प्रति सावधान करें। उसे कम से कम तीन बार तो प्रेम से समझाकर सुपथ अपनाने पर बल दे। यदि शिष्य इतने पर भी नहीं मानता है, तो इसमें गुरु का दोष नहीं रहता। अन्यथा शिष्य के अपराध में गुरु पर भी दोष जाता है ॥११.१०८॥
मन्त्रिदोषश्च राजानं जायादोषः पतिं यथा । तथा प्राप्नोत्यसन्देहं शिष्यपापं गुरुं प्रिये ॥११.१०९॥ कुलार्णव तं
मन्त्री का दोष राजा पर और स्त्री का दोष पति पर जाता ही है। राजा और पति क्रमशः मन्त्री और स्त्री को सत्पथ पर रख सकते हैं। यही दशा शिष्य के पाप की है। वह गुरु पर जाता है। यह निश्चित है। अतः तीन बार सावधान करना गुरु के लिये आवश्यक होता है ।।१०९॥
अतः सामान्य जन अपने नजदीकी किसी वैदिक विद्वान से वैष्णव शैव गणपति देवी, सूर्य संप्रदाय में से स्वेच्छानुसार या कुल परम्परा अनुसार अवश्य दीक्षा लें।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र चारों वर्ण वैदिक हैं। आपका सौभाग्य है कि आप चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का हिस्सा हैं।
अतः वैदिक सद्गुरु की शरण ग्रहण करें।
- आजकल के कालनेमी/फरेबी/झूठे लोगों के चक्कर में न आएं।
ध्यान दें —
१. जो वैदिक सनातनी हो
२. गुरु परम्परा, गायत्री आदि में दीक्षित हो।
३. दशनामी अखाड़े, शांकर परम्परा, रामानंद, रामानुज, मध्व,निम्बक, वल्लभ आदि सनातनी संप्रदाय वाला हो।
- ४. सबसे महत्वपूर्ण — जो दिखावे से दूर हो, लालची न हो, ज्ञानी हो, आचरणवान् हो ।
सभी को महर्षि वेदव्यास पूजन , गुरु पूजन और गुरु पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाए। पंडित दिलीप देव द्विवेदी ज्योतिषाचार्य
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पंडित दिलीप देव द्विवेदी ज्योतिषाचार्य
सम्पर्क सूत्र 82997 96472