परीक्षित पुत्र जन्मेजय ही नहीं हम भी ‘सर्पयज्ञ’ कर सकते हैं।
◆मन के इंद्रासन से लिपटा तक्षक यज्ञ में भस्म होकर रहेगा। काम-क्रोध, मद-लोभ सबसे घातक सर्प होते हैं। ये खुद को ही डंसते है।
◆ये सर्प मन से संचालित पांचों ज्ञानेंद्रियों से लिपटे रहते हैं ‘तक्षक’ की तरह।
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◆मन ही इंद्र है और ज्ञानेंद्रियां उसकी अप्सराएं ।
◆’मेनका’ यानी मन के भाव, ‘रम्भा’ यानी मन में रमण करने वाली प्रवृत्तियाँ, ‘उर्वशी’ का आशय उर (हृदय) में बसने वाली आकांक्षाएं हैं।
◆इसके लिए खुद ही परीक्षण करने वाले विवेक रूपी ‘परीक्षित’ पुत्र ‘जन्मेजय’ को सर्प-यज्ञ करना पड़ेगा, कोई बाहर से न कर सकेगा।
◆’जन्मेजय’ का मतलब ही जब विजय के भाव का मन में ‘जन्म’ हो वरना कुंडली मारे कामनाओं का जहर जीवन बर्बाद कर देगा।
● सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।

