तीसरी आंख : बुके का स्वादिष्ट अचार लो भाई अचार !
- ★सच्चाई छुप जा रही कागज़ के फूलों से, खुशबू आ रही उनके बनावट के उसूलों से!
★ जमाना बदलाव का है। होना भी चाहिए। आखिर एक ही ढर्रे पर चलना ‘हर रोज वही पुराने स्टाइल में दाल-भात खाने जैसा है। जी ऊब भी जाता है बाप-दादा के बताए रास्तों पर चलने से।
अरे, वे तो ढिबरी में जीते थे। आज कोई उसी ढिबरी में यदि जीएंगे तो शायद कुत्ते, बिल्ली भी दरवाजे पर न आएं। दुनियां धरती की नहीं बल्कि आकाश की हो गई है।
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जागते ही मोबाईल- महाराज के दर्शन से यह परम ज्ञान तो मिलता है कि ‘पुराने दिन लद गए, अब तो अच्छे दिन आ गए हैं।’ इस अच्छे दिन लाने का एक ही सीधा-सादा फंडा जो है वो यह कि ‘सच्चे वसूलों’ को टा-टा, बाय-बाय करना और बनावटी मुस्कानों की राजधानी चेहरे पर बना देना, फिर तो यह वक्त है बेईमानों का, झूठे कसम और आश्वासनों का डिस्को डांस झूम कर करने पर खूब बजेगी तालियां, खुश रहेगी बीबी भी और सालियाँ भी।
★इधर देखा बुके, उधर देखा बुके, सत्ता और शासन में बुके ही बुके : अब तो बुके की बहारों के बीच एक मीठी आवाज़ आती है। पहली आवाज़ यह है कि बुके देने वाला परम कुर्सीभक्त है। जिसे दे रहा, उससे कोई न कोई सिंहासन की अपेक्षा है।
बेटिकट टिकट के लिए, जीता हुआ मखमली मंत्री वाले सिंहासन के लिए बुके लेकर दौड़ रहा है। मजेदार यह कि दोनों के चेहरे पर बनावटी मुस्कान सोहल-श्रृंगार किए दिखाई पड़ती है।
मन ही मन गीत ‘कैसे तुझसे प्यार करूँ, कैसे ऐतबार करूँ ? झूठा है सारा वादा, वादे पे सारे मारे गए’ दोहराए पर दोहराए जाता रहता है।
★कूड़ा हटाने के लिए कूड़ेदान में जाने वाला बुके जरूरी : ‘ये सड़क है या सड़क की मृत-आत्मा, लगा है मलबा या कूड़ों का आशियाना। यदि इतना भी काम है और स्वीपर नहीं सुन रहा तो जिस किसी महानुभाव के यहां फरियाद लेकर जाने की प्लानिंग हो तो अपनी नहीं उनकी हैसियत के हिसाब से बुके तो ले ही जाना पड़ेगा।
क्योंकि वहां बुके-धारियों की लाइन मिलेगी। यह प्रकट मामला है बुके का, अंडरग्राउंड मामला यह है कि कूड़ा-करकट हटवाना है तो पहले मिजाज तो मीठा करना पड़ेगा। किसी शानदार मिठाई वाले को बता देने पर वह बजटानुसार गिफ्ट पैक कर देगा। यह घाटे का सौदा नहीं है। कूड़े से निकला डेंगू यदि कहीं मेहरबान हो गया तो डॉक्टरी चक्कर में लाखों खर्च कर जान गंवाना पड़ सकता है।
★अपुन के दिमाग में एक प्लानिंग है : किसी रिसर्च स्कॉलर से ‘बुके का अचार’ पर रिसर्च करने के लिए कहेंगे। यह फार्मूला लांच होते सारे माननीयों के यहां हर रोज भेंट में प्राप्त बुके के कूड़े को लाकर उसका अचार बनवाएंगे।
स्वाभाविक है कि माननीयों के स्पर्श से कागज-प्लास्टिक वाले फूलों का अचार ताकत तो देगा ही। हुआ न ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ का फार्मूला?
● सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।